मजबूर हु, पर मंज़ूर नही है..
जानती हु, बेहतर कर सकती हू,
पर आज शायद खुद के ही साथ नही हू…
साथ खुदका मुझे खुदा से मिलवाता था,
सबको पाकर आज खुद ही गुमशुदा हू…
जिन अंधेरों मे लिखकर रोशनी पिरोती थी,
आज उजालों मे भी वोह लेखन दिखाई नही दे रहा…
सोच सोच कर रोज़ समय बर्बाद करती हू,
अक्सर खुदको कोसती हू…
फिर भी रोज़ नई उम्मीद इन आँखों मे भरकर,
अपने सपनो की तरफ चलने की कोशिश करती रहती हू|
बहुत खूब
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