जज़बात…

Rose

उन जज़बातो ने क्या साजिश की थी,

कि दिल यूं डूबा की निकल ही ना सका…

कसूर किसी का नही था,

बस यह जज़बात गहरे थे

और

यह दिल कुछ कमज़ोर था…

आज भी इस कदर नुमाईश है,

कि कल डूबना पर जाऐ,

यह दिल डूब जाऐगा…

कभी चूर करते है खुद को यह जज़बात,

और कभी आगे बढ़ने का हौसला भी देते है…

यह तोह बस शब्द हैं कि,

डुबते दिल को भी जज़बातो के दंगल से बचा लेते है…

खुद कागज़ पर उतर,

मुझे ज़जबातो के वार से बचा लेते है…

वरना यह भावनाएँ इस कदर डसती है कभी-कभी मुझे कि,

वार भी अपना होता है,

और,

ज़खमी भी यह दिल होता है…

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