
समय कुछ ख़फ़ा है,
साँस के लिए इंसान तड़प रहा है,
व्यर्थ है कमाई और शोहरत,
बेकार है हर एक पूँजी,
ऐसे मोड़ पर आ खड़ी है ये ज़िंदगी।
कुछ एहतियात ही तो है,
ए-इंसान,
कुछ दिन चार दिवारी मे घुट कर जी ले,
अपनो को या किसी और के अपनो को मरते नही देखना पड़ेगा।
जब बखूबी मुखौटा बदल लेता है मन अनुसार,
तो क्यो मास्क पहनने मे असमर्थ है आज?
एक मास्क की ही तो बात है,
कुछ दूरियाँ बना फ़िलहाल,
मास्क पहन,
पछताना नही पड़ेगा,
ना कल, ना आज।